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द॒धि॒क्रां वः॑ प्रथ॒मम॒श्विनो॒षस॑म॒ग्निं समि॑द्धं॒ भग॑मू॒तये॑ हुवे। इन्द्रं॒ विष्णुं॑ पू॒षणं॒ ब्रह्म॑ण॒स्पति॑मादि॒त्यान्द्यावा॑पृथि॒वी अ॒पः स्वः॑ ॥१॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

dadhikrāṁ vaḥ prathamam aśvinoṣasam agniṁ samiddham bhagam ūtaye huve | indraṁ viṣṇum pūṣaṇam brahmaṇas patim ādityān dyāvāpṛthivī apaḥ svaḥ ||

पद पाठ

द॒धि॒ऽक्राम्। वः॒। प्र॒थ॒मम्। अ॒श्विना॑। उ॒षस॑म्। अ॒ग्निम्। सम्ऽइ॑द्धम्। भग॑म्। ऊ॒तये॑। हु॒वे॒। इन्द्र॑म्। विष्णु॑म्। पू॒षण॑म्। ब्रह्म॑णः। पति॑म्। आ॒दि॒त्यान्। द्यावा॑पृथि॒वी इति॑। अ॒पः। स्वः॑ ॥१॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:44» मन्त्र:1 | अष्टक:5» अध्याय:4» वर्ग:11» मन्त्र:1 | मण्डल:7» अनुवाक:3» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब चवालीसवें सूक्त का प्रारम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में मनुष्यों को सृष्टिविद्या से सुख बढ़ाना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वानो ! जैसे (ऊतये) धनादि के लिए मैं (वः) तुम लोगों को और (प्रथमम्) पहिले (दधिक्राम्) जो धारण करनेवालों को क्रम से प्राप्त होता उसे (अश्विना) सूर्य और चन्द्रमा (उषसम्) प्रभातवेला (समिद्धम्) प्रदीप्त (अग्निम्) अग्नि (भगम्) ऐश्वर्य्य (इन्द्रम्) बिजुली (विष्णुम्) व्यापक वायु (पूषणम्) पुष्टि करनेवाले ओषधिगण (ब्रह्मणस्पतिम्) ब्रह्माण्ड के स्वामी (आदित्यान्) सब महीने (द्यावापृथिवी) सूर्य और भूमि (अपः) जल और (स्वः) सुख को (हुवे) ग्रहण करता हूँ, वैसे ही मेरे लिये इस विद्या को आप भी ग्रहण करें ॥१॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है । हे मनुष्यो ! जैसे विद्वान् जन प्रथम से भूमि आदि की विद्या का संग्रह करके कार्यसिद्धि करते हैं, वैसे तुम भी करो ॥१॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

मनुष्यैः सृष्टिविद्यया सुखं वर्धनीयमित्याह ॥

अन्वय:

हे विद्वांसो ! यथोतयेऽहं वः प्रथमं दधिक्रामश्विनोषसं समिद्धमग्निं भगमिन्द्रं विष्णुं पूषणं ब्रह्मणस्पतिमादित्यान् द्यावापृथिवी अपः स्वश्च हुवे तथा मदर्थं यूयमप्येतद्विद्यामादत्त ॥१॥

पदार्थान्वयभाषाः - (दधिक्राम्) यो धारकान् क्रामति (वः) युष्मान् (प्रथमम्) आदिमम् (अश्विना) सूर्याचन्द्रमसौ (उषसम्) प्रभातवेलाम् (अग्निम्) पावकम् (समिद्धम्) प्रदीप्तम् (भगम्) ऐश्वर्यम् (ऊतये) धनाढ्याय (हुवे) आददे (इन्द्रम्) विद्युतम् (विष्णुम्) व्यापकं वायुम् (पूषणम्) पुष्टिकरमोषधिगणम् (ब्रह्मणस्पतिम्) ब्रह्माण्डस्य स्वामिनं परमात्मानम् (आदित्यान्) सर्वान् मासान् (द्यावापृथिवी) सूर्यभूमी (अपः) जलम् (स्वः) सुखम् ॥१॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्याः ! यथा विद्वांस आदितः भूम्यादिविद्यां संगृह्य कार्यसिद्धिं कुर्वन्ति तथा यूयमपि कुरुत ॥१॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात अग्निरूपी घोड्यांचे गुण व काम यांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.

भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! जसे विद्वान लोक सुरुवातीपासूनच भूमिविद्या प्राप्त करून कार्यसिद्धी करतात तसे तुम्हीही करा. ॥ १ ॥